गिरिपार क्षेत्र में धूमधाम से मनाई जा रही है बुढीदिवाली

 सिरमौर जिले के गिरीपार जनजातीय क्षेत्र में रविवार से बूढ़ी दिवाली पर्व सेलिब्रेशन शुरू हुआ। इस क्षेत्र में मार्गशीर्ष महीने की अमावस्या पर बूढ़ी दिवाली पर्व मनाया जाता है। सिरमौर संस्कृति की विशिष्ट पहचान बूढ़ी दिवाली, दीपावली के ठीक 1 महीने बाद मनाई जाती है। अधिकतर गांव में 5 से 7 दिन तक सांस्कृतिक आयोजन होते हैं। फेस्टिवल की शुरुआत अमावस्या की रात मशाल जुलूस के साथ होती है।
 सिरमौर जिले के गिरीपार हाटी जनजातीय क्षेत्र में आजकल उल्लास का माहौल है। ढोल नगाड़ों और हुड़क की थाप पर नाचते गाते लोग जश्न मना रहे हैं। दरअसल, पहाड़ी क्षेत्रों में बूढ़ी दिवाली पर्व शुरू हुआ है। इस क्षेत्र में यह अनोखा पर्व आज भी परंपरागत तरीके से मनाया जाता है। पर्व की शुरुआत अमावस्या की मध्य रात्रि मशाल जुलूस के साथ होती है। मान्यता है कि देवता का गुणगान करते हुए मशाल जुलूस से बुरी आत्माओं को गांव से खदेड़ा जाता है। इस दौरान लोग देव बंदनाओं के साथ साथ जम कर नाच गाना करते हैं।
– दंतकथाओं के अनुसार इस दूरदराज क्षेत्र में  दीपावली पर्व की जानकारी कई दिनों बाद मिली थी। ऐसे में यहां लोगों ने दीपावली के एक महीने बाद मार्गशीर्ष महीने की अमावस्या को दीपावली पर्व मनाया। एक मान्यता दैत्यराज राजा बली से भी जुड़ी है। बताया जाता है कि पाताल लोक में जाने के बाद राजा बलि एक बार धरती पर आए थे उनके धरती पर दुबारा आगमन के उपलक्ष में इस क्षेत्र में बूढ़ी दीपावली पर्व मनाया जाता है। बूढ़ी दिवाली मनाने के पीछे कोई शास्त्रीय तर्क सामने नहीं आया है। लिहाजा, क्षेत्र के लोग मान्यताओं में न पड़कर पर्व मनाने पर फोकस रखते हैं।
नई दिवाली के ठीक एक माह बाद पूरे गिरिपार क्षेत्र मे मनाए जाने वाले इस अहम पर्व की तैयारियां लगभग पूरी हो चुकी है। गृहिणियों ने इस पर्व पर परोसे जाने वाले मुख्य व्यंजन मुड़ा और शाकुली बनाने का कार्य पूरा कर लिया है। बूढ़ी दीवाली का यह त्योहार सिरमौर के गिरिपार के घणद्वार, मस्त भौज, जेल-भौज, आंज-भौज, कमरऊ, शिलाई, रोनहाट व संगड़ाह क्षेत्र के अलावा उतराखंड के जौंसार बाबर में भी मनाया जाता है।
बूढ़ी दीवाली के इस त्योहार को परंपरागत तरीके से मनाने के लिए क्षेत्र के ग्रामीण कई दिन पहले से तैयारी में जुट जाते है। इन दिनों ग्रामीण अपने घरों लिपाई-पुताई करते है। बूढ़ी दीवाली का पारंपरिक व्यंजन मुड़ा है, जो कि गेंहू को उबालकर सूखाने के बाद कड़ाही में भूनकर तैयार किया जाता है। इस मूड़े के साथ अखरोट की गीरी, खील, बताशे व मुरमुरे आदि मिलाए जाते है। इस पर्व की पूर्व संध्या पर घर पर पारंपरिक शाकाहारी व्यंजन बेडोली और असकली आदि बनाई जाती है। जिसे शुद्ध घी के साथ खाया जाता है।
 पर्व की विशेषता यह है कि बूढ़ी दिवाली आज भी प्राचीन परंपरागत ढंग से ही मनाया जाता है। हालांकि पहनावे और खान-पान में कुछ बदलाव जरूर आए हैं मगर, प्राचीन पहाड़ी परंपराओं में पाश्चात्य और मैदानी संस्कृति का लेश मात्रा अंश भी देखने को नहीं मिलता है। पहाड़ों में लोग आज भी अपनी संस्कृति को संजोहे रखे हुए हैं। घर से दूर रहने वाले लोग भी हर हाल में अपने गांव पहुंचते हैं और पर्व का हिस्सा बनते हैं। परंपराओं के संवर्धन के लिहाज से सुखद बात यह है कि युवा पीढ़ी इन परंपराओं से जुड़कर परंपराओं को आगे बढ़ाने में बढ़-चढ हिस्सा ले रही है

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