जिस धर्म और संस्कृति में चींटी को पांव से कुचलना भी पाप माना जाता है और जहां यह कहा जाता है कि जब भी राह में चलें तो देखकर चलें कि आपके चलने से चींटी भी मारी न जाए उसे भी न चोट पहुंचे। ऐसे देश में और ऐसी संस्कृति के पोषक लोग अगर किसी विशेष अवसर पर किसी मुख्य त्योहार के मौके पर किसी भी कारण से एक दूसरे को कुचलते हुए और बेपरवाह होकर निरंतर आगे बढ़ते जाएं तो निसंदेह इस तरह की घटनाएं हमारे मूल्यों पर, हमारी सोच पर कहीं न कहीं अंगुली अवश्य उठाती हैं।
ऐसी दर्दनाक घटनाओं को महज़ प्रशासन की नाकामी और व्यवस्थाओं की विफलता को लेकर ही नहीं देखा जाना चाहिए।जिसमें कमेटियां गठित कर दी जाती हैं ।कुछ अधिकारियों, कुछ कर्मचारियों को दोषी करार दे दिया जाता है। कुछ समय बाद फिर दूसरा कोई धार्मिक आयोजन होता है उसमें फिर इस तरह की घटनाएं घट जाती हैं फिर इसी तरह व्यवस्थापकों को जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है और बात समाप्त हो जाती है।
इसमें भी कोई दो राय नहीं कि प्रशासन द्वारा भी लापरवाही हो जाती है और कई बार प्रशासनिक निर्णय भी गलत साबित हो जाते हैं परंतु अधिकतर मामलों में जो भी अधिकारी व्यवस्थाएं देख रहे होते हैं वे व्यवस्था को सुदृढ़ करने के लिए दिन रात अच्छे मन से कार्य करते हैं परंतु कोई भी सिस्टम किसी न किसी कारण से फेल भी हो सकता है। कोई भी अधिकारी और कर्मचारी यह नहीं चाहता कि उसके निरीक्षण में किसी भी तरह की कोई अव्यवस्था फैले जिससे उसकी बदनामी हो और उसकी नौकरी पर आंच जाए।
इस भगदड़ में कई सवाल हमारी संवेदनहीनता ,धर्मांधता , पुण्य प्राप्ति का लालच , मीडिया का जबरदस्त प्रचार, सुविधाजनक आवागमन से भी जुड़े हैं।
इस भगदड़ में महिलाओं बच्चों बूढ़ों को रोंदने वाले कौन लोग थे? क्या वे सही मायने में धार्मिक थे ?क्या हम सभी इसी तरह की मानसिकता के लोग हैं?। क्या ये व्यक्ति सही मायने में इंसान कहलाने के लायक हैं? क्योंकि भीड़ तो सामूहिक होती है कोई एक व्यक्ति नहीं होता इसलिए दोष भी किसी एक पर मढ़ा नहीं जा सकता।
क्या लोगों को धार्मिक आयोजनों में भाग लेने के लिए भी शिक्षित की जाने की आवश्यकता है? क्या हम इतने सालों में यह भी नहीं समझ सके कि स्नान से ज्यादा जरूरी है मानव का जीवन। मासूमों की लाशों पर पैर रखकर कौन सा पुण्य प्राप्त किया होगा यह हम सभी के लिए बहुत बड़ा सवाल है।
गंगा को पाप नाशिनी कहा गया है परंतु क्या पाप करके गंगा में नहाने से पाप समाप्त हो जाएंगे। धर्माचार्यों को धार्मिक कार्यों की सामयिक और उचित व्याख्या करनी होगी ताकि हिंदू धर्म अपने वास्तविक स्वरूप को प्राप्त कर सके और सत्य के मार्ग पर आगेबढ़ सके।
प्रचार माध्यमों पर ऐसे त्योहारों में शुभ मुहूर्त को बढ़-चढ़कर बताया जाता है जिसकी वजह से लोग शीघ्र बड़ा पुण्य प्राप्ति के लालच में ज्यादा भीड़ का हिस्सा बन जाते हैं और कुछ दुर्भाग्य का शिकार हो जाते हैं।
ऐसी घटनाएं दोबारा न हो इसके लिए आवश्यक है कि धर्माचार्य तथा धार्मिक संस्थाएं मिलकर विचार करें लोगों को तर्कशील और संवेदनशील बनाएं । लोगों में बौद्धिक रुचि का प्रसार करें और उन्हें मानसिक तौर पर सशक्त भी करें।
धर्मेंद्र ठाकुर ,पूर्व उप निदेशक सुचना एवं जनसम्पर्क ,हिमाचल प्रदेश