सिरमौर के प्रसिद्ध धारटीधार के आंचल में स्थित एक ऐसा शिवालय है,

दग्योन- जिला सिरमौर के प्रसिद्ध धारटीधार के आंचल में स्थित एक ऐसा शिवालय है, जहां भगवान शिव शंकर ने न केवल तत्कालीन महात्मा ब्रह्मलीन श्री प्यारा नंद को उनकी कुटिया में  दर्शन देकर वहां शिव मंदिर बनाने की प्रेरणा दी बल्कि एक रात उनकी कुटिया के प्रांगण में रह कर चावल, घी व शक्कर का प्रसाद ग्रहण कर अपने बर्तन स्वयं साफ किए। यह स्थान नाहन से वाया जमटा पंजाहल करीब 40 किमी व धौलाकुआं से वाया बिरला 36 किमी तथा वाहन रामाधौणी भी 40 किमी है।  पहले यहां पर श्रद्धालु थाना कसोगा से पैदल जाते थे। लेकिन अब  आश्रम तक जाने के लिए सड़क का निर्माण किया गया है।
प्रात काल के भौर समय में महात्मा को साक्षात अपना असली  रूप की झलक दिखा कर भगवान शिव  तत्काल अंतरध्यान हो गए। अगले दिन से वहां नजदीकी गांव के लोग अपने आप ही इकट्ठे होने शुरू हो गए तथा पहाड़ी ढलान को समतल बनाना शुरू कर दिया तथा कार्य की निरंतर आगे बढ़ाते हुए वहां पर स्थानीय राज मिस्त्रियों ने महात्मा की मार्ग दर्शन में  मंदिर का निर्माण कार्य शुरू कर दिया।
महात्मा प्यारा नंद हरियाणा प्रांत के  अंबाला जिले के जंडली गांव के मूल निवासी थे। उन्हें बचपन में ही शिव भक्ति की लगन लग गई थी तथा अपने पैतृक गांव में काफी समय शिव का प्रवित्र जाप करने के बाद वह शिवत्व की खोज के लिए हिमाचल की शिवालिक पहाड़ियो में आ गए। सबसे पहले उनका विश्राम नाहन के नजदीक आमवाला गांव में हुआ। जहां उन्होंने शिवलिंग स्थापित करने की प्रेरणा दी। कुछ समय यहां पर रहने के बाद वह स्वर्ग की दूसरी पौड़ी कह जाने वाली पौड़ीवाला मंदिर में पहुंचे।  तथा वहां पर उन्होंने भगवान शिवर की तपस्या की। पौड़ीवाला में उनकी देखरेख वहां के स्थानी निवासी शिवराम सैणी करते थे। लेकिन लगता है कि महात्मा प्यारानंद की ठिकाना तो कुछ और ही था। वह पौड़ीवाला से चल कर मां रेणुका के चरणों में पहुंचे,  तथा वहां से अपना मंजिल को पाने के लिए धारटीधार के भांभी बनोत गांव मे रहे। इस स्थान पर वह पांच साल तक शिव की आराधाना  की। उसके  बाद दग्योण के उदय राम के साथ वह इस पवित्र स्थान पर पहुंचे तथा एक कुटिया में भगवान शिव की निराहार आराधना शुरू कर दी। वहीं पर एक दिन शाम के समय एक सफेद कपड़े वाला व्यक्ति वहां पर पहुंचा तथा महात्मा से कुटिया में रात बिताने की जिद करने लगा। जिस पर महात्मा ने उसे यह अपनी कुटियां के प्रांगण में ठहरा दिया और रात्रि के समय उसे चावल, शक्कर और देसी घी खाने को दिया। यहां से इस कहानी में नया मोड़ आता है। महात्मा प्यारा नंद बताते थे कि वह महात्मा उन चावलों को बे ढंगे तरीके से खा रहा था। जिस पर उन्होंने उस व्यक्ति अपने सही तरीके से खाने को कहा। तथा खाने के बाद वह महात्मा ने उस पुरूष को अपनी थाली साफ करने को कहा। लेकिन माघ का महिना होने घी पानी से नहीं निकल रहा था। जिस पर महात्मा ने उससे दोबारा थाली साफ कराई। सुबह भौर होते ही उस व्यक्ति ने महात्मा को वहां शिव मंदिर स्थापित करने को कहा। लेकिन जैसे ही महात्मा ने उसकी पुरूष की ओर आंख उठा कर देखा तो साक्षात शिव थे और देखते ही अंतर ध्यान हो गए। यह घटना 1960 के दशक की बताई जाती है। उस समय से यहां सेवादारों का जुड़ना शुरू हो गया और उसी महनेत का परिणाम स्वरूप यह स्थान  प्राकृतिक सौंदर्य व छटाओं को बखेरता औलोकिक शिवालय बन गया है। स्वामी प्यारा नंद जी 30 नवंबर 1994को ब्रह्मलीन हो गए। उसके बाद उनके शिष्य बाल बह्रमचारी स्वामी बाला नंद जी महाराज ने पूजा अर्चना  की परंपरा तथा आश्रम के विस्तारीकरण का कार्य जारी रखा।
मान्यता है कि जिस भी भावना से कोई श्रद्धालु इस मंदिर में आता है भगवान शिव उसकी उसी भावना से मनोकामना पूर्ण करते है। पूरी धारटीधार के साथ इस आश्रम के साथ पूर्व प्रशासनिक अधिकारी एवं साहित्य कार सीआरबी ललित, एचआरटीसी के पूर्व मंडलीय प्रबंधक एसी नेगी, प्रचंड समय के प्रधान संपादक एवं हिमचाल प्रदेश के निर्भीक  पत्रकार के रूप मे  जाने वाली अश्ववनी वर्मा जैसे लोग जुड़ते गए। तथा इस स्थान की ख्याति दूर दूर तक होने लगी। हर साल  शिवरात्रि तथा श्रावन तथा माघ माह के सोमवारों को यहां श्रद्धालुओं की भीड़ लगी रहती है जो  जलाभिषेक के लिए लंबी कतारों में लगे रहते है।

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